
भारत में समान नागरिक
संहिता का प्रस्ताव बनाया गया है जो सभी भारतीय नागरिकों पर उनके लिंग, यौन रुझान या धर्म की परवाह किए बिना समान रूप से लागू होगा. वर्तमान में, कई समूहों के कानून और धार्मिक ग्रंथ अपने स्वयं के कानूनों को नियंत्रित
करते हैं. भारत की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा की गई विवादास्पद
प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा यह भी है कि पूरे देश में समान नागरिक संहिता को
लागू करना है. रही बात धर्मनिरपेक्षता की तो यह भारतीय राजनीति के लिए एक
महत्वपूर्ण मुद्दा है.
समान नागरिक संहिता एक
सामाजिक कानून है जो विवाह, तलाक, विरासत, बच्चे को गोद लेने आदि के संबंध में हर धर्म पर समान रूप से लागू होता है.
समान नागरिक संहिता का मूल सिद्धांत यह है कि कई धर्मों के लिए अलग-अलग कानूनी
व्यवस्था नहीं होनी चाहिए. किसी भी धर्म या जाति के व्यक्तिगत कानून इस संहिता के
अधीन हैं.
भारतीय संविधान का अनुच्छेद
25-28 भारतीय नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है. वहीं संविधान का
अनुच्छेद 44 भारतीय राज्य को राज्य के नीति निर्देशक तत्व और राज्य में समान
नागरिक कानून बनाने का अधिकार देता है. अर्थात संविधान के अनुच्छेद 44 में समांन
नागरिक संहिता का उल्लेख देखने को मिलता है. जो कि राज्य के नीति निर्देशक तत्व का
एक अंग है. अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि “राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक सिविल संहिता
प्राप्त कराने का प्रयास करेगा.”
भारत में गोवा एकमात्र
ऐसा राज्य है जहां पर समान नागरिक संहिता लागू है. वर्ष 1961 में
पुर्तगाली शासन से स्वतंत्रता के बाद गोवा ने अपने सामान्य़ पारिवारिक कानून को
बनाए रखा, जिसे गोवा नागरिक संहिता कहते हैं. शेष भारत में
धार्मिक या सामुदायिक पहचान के आधार पर अलग-अलग पर्सनल कानूनों का पालन किया जाता
है.
समान नागिरक संहिता लागू
होने से हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम
(1956) और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून आवेदन अधिनियम (1937) जैसे धर्म पर आधारित
मौजूदा व्यक्तिगत कानून तकनीकी रूप से भंग हो जाएंगे.
डॉ. भीमराव अंबेडकर और
उनके सहयोगियों ने जब संविधान बनाया तो उस समय कहा था कि समान नागरिक संहिता
वांछनीय है, यानी यह लागू होना चाहिए. लेकिन उन्होंने उस समय इसे स्वैच्छिक रखने का
फैसला किया.
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