सफर में जब निकले तो साथ कोई था तो वो बस मेरा साया,

पड़े जब दुखों में तब काम मेरे न कोई आया,

मरने पर अर्थी को कांधा देने को तो होते है कई कांधे;

पर जीते जी रोने को कोई कांधा नसीब न आया।1।

कहते हैं कि यही है दुनिया की रीत पुरानी,

पर जब खुद पर गुजरी तो बात मैंने ये जानी,

मरने की बात करने वाले को कमजोर और सिरफिरा तो सभी ने कहा;

मरने वाले के मन की व्यथा किसी ने न जानी।2।

जीने की उम्र में भला मरने की बात आखिर कोई क्यों करता है,

एक रोज़ आत्महत्या करने वाला उसके पहले हर रोज मरता है,

चाहता तो वो भी रहा होगा कि कोई दे उसे भी कंधा सर रख रोने को;

पर सबके सामने रोने से शायद वो शख्स डरता है।3।

क्या यह सच है कि यहाँ कोई न अपना होता है,

मरने वाला हंसता तो सबके संग पर अकेले में रोता है,

अंत में जब उसने किया होगा खुद को मौत के हवाले,

कोसकर भगवान को बोला होगा कि भगवान तेरी दुनिया में ऐसा ही होता है।4।

-संस्कार श्रीवास्तव